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म्यांमार में सैन्य शासन की वापसी और भारत की विदेश नीति - आजाद सिंह राठौड़

म्यांमार दक्षिण पूर्व एशिया में स्थित है उसके पड़ोसी देशों में थाइलैंड, लाओस, बांग्लादेश, चीन और भारत शामिल है। इसकी आबादी लगभग 5.4 करोड़ है, जिनमें से ज्यादातर बर्मी भाषा बोलते हैं, हालांकि इसके अलावा अन्य भाषाएं भी बोली जाती हैं। सबसे बड़ा शहर यंगून (रंगून) है लेकिन राजधानी नैप्यीदा है। मुख्य धर्म बौद्ध है। 1989 में तत्कालीन सत्तारूढ़ सेना ने देश का नाम बर्मा से बदलकर म्यांमार कर लिया था।

 
गत सप्ताह म्यांमार में एक बड़ा घटनाक्रम देखने को मिला जिसमें सेना ने वहां की चुनी हुई सरकार का तख्तापलट कर मार्शल लॉ लागू कर दिया। यह अप्रत्याशित जरूर था परंतु म्यांमार के शक्तिशाली सैन्य प्रमुख मिन औंग हलिंग ने पिछले साल के चुनाव परिणामों के आने से पहले ही सैन्य शासन के आसार जता दिए थे जब सेना समर्थित राजनीतिक दल की चुनावी हार स्पष्ट होती जा रही थी।


गत् वर्ष नवंबर में आए परिमाणों में अपदस्थ शीर्ष नेता आंग सान सू की की नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी (एन.एल.डी) ने लगभग 80% वोट हासिल कर चुनावों में जीत हासिल की, जबकि सेना समर्थित यूनियन सॉलिडैरिटी एंड डेवलपमेंट पार्टी ( यू.एस.डी.पी) को अपमानजनक हार का सामना करना पड़ा।


यू.एस.डी.पी ने परिणाम को स्वीकार नहीं किया। सेना ने भी बिना किसी सबूत के यू.एस.डी.पी के धोखाधड़ी के आरोपों का समर्थन किया। म्यांमार के केंद्रीय चुनाव आयोग ने आरोपों को खारिज कर दिया और परिणामों का समर्थन किया। गत् सप्ताह नई संसद बुलाने के कुछ घंटे बाद फौजी जनरलों के आदेश पर सेना ने सू की समेत लोकतांत्रिक रूप से चुनी हुई सरकार के दूसरे सबसे बड़े नेता विन माइंट और एन.एल.डी के अन्य शीर्ष नेताओं को हिरासत में ले सत्ता को अपने हाथ में ले लिया।

सेना ने एक वर्ष के लिए आपातकाल घोषित कर दिया। दशकों से क्रूर सैन्य तानाशाही के बाद पिछले 10 साल से लोकतंत्र का आनंद ले रहा म्यांमार एक बार फिर से जनरलों के हाथों में आ गया है। आंग सान सू की का अपदस्थ होना भारत के लिए भी एक बड़े झटके से कम नहीं है। भारत में स्नातक की पढ़ाई कर चुकी 75 वर्षीय सू की, म्यांमार में सेना व सैन्य शासन के विरोध के लिए काफी लोकप्रिय हैं। वह दो दशकों तक नजरबंद रह चुकी हैं। उनके इस संघर्ष ने उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार भी अर्जित करवाया है। उन्हें भारत की सरकारोंं व राजनेताओं के साथ बेहतर संबंध के लिए जाना जाता है।
 
भारत-म्यांमार संबंध: भारत-म्यांमार के संबंध साझा ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संबंधों में निहित हैं। म्यांमार एकमात्र दक्षिण पूर्व एशियाई देश है जो पूर्वोत्तर भारत के साथ भूमि सीमा साझा करता है, जो लगभग 1,624 किलोमीटर तक फैली है। साथ ही साथ बंगाल की खाड़ी में 725 किलोमीटर की समुद्री सीमा भी साझा करता हैं।

भारतीय मूल की एक बड़ी आबादी (लगभग 25 लाख ) म्यांमार में रहती है। भारत और म्यांमार ने 1951 में ही परस्पर मित्र व सहयोग संधि पर हस्ताक्षर कर लिए थे। द्विपक्षीय व्यापार का विस्तार 1980-81 में 12.4 मिलियन अमेरिकी डॉलर से 2010-11 में 1070.88 मिलियन डालर तक हो चुका है। जुलाई 1997 में म्यांमार आसियान का सदस्य भी बन गया।

भारत के साथ भूमि सीमा साझा करने वाला एकमात्र आसियान देश म्यांमार है। भारत की सरकारी उपक्रम व निजी क्षेत्र की कम्पनीयां बड़ी संख्या में म्यांमार में कार्य कर रही है।

पिछले साल अक्टूबर में भारत ने म्यांमार की नौसेना को एक पनडुब्बी आईएनएस सिंधुवीर को सौंपने की घोषणा की थी। विदेश सचिव हर्षवर्धन श्रृंगला और थल सेनाध्यक्ष जनरल मनोज मुकुंद नरवणे ने वैश्विक महामारी की पृष्ठभूमि में संबंधों को मजबूती देने के लिए पिछले अक्टूबर में म्यांमार का दौरा भी किया था।
 
म्यांमार वर्तमान परिप्रेक्ष में भारत के लिए चुनौती बनता जा रहा है। शुरुआत से ही चीन व म्यांमार की सैन्य नेतृत्व का झुकाव परस्पर रहा है। लोकतांत्रिक सरकार आने से विशेषकर आंग सान सू की का भारत के प्रति मैत्री का भाव चीन के लिए अपने आधिपत्य को म्यांमार पर बनाए रखने के लिए एक दीवार समान प्रतीत होने लगा था, परंतु इसके बावजूद अंतिम कुछ वर्षों में म्यांमार सेना और चीन के बीच बढ़ते सैन्य संबंधों ने उसकी गुटनिरपेक्ष नीति को चीन के प्रति झुकाने का हर सम्भव बल दिया है।

वर्तमान तख्तापलट में भी चीन ने एक तरह से सहमति देते हुए उसके विदेश मंत्रालय ने इसे मात्र सरकारी पदों में बदलाव की संज्ञा दी है। हाल के वर्षों में, चीन ने म्यांमार सेना की मदद से बंगाल की खाड़ी में जानकारी इकट्ठा करने के लिए सैन्य जहाजों के साथ क्षेत्र के लगातार दौरे व साझा सैन्य अभ्यास करता रहा है।

इसे सैन्य दृष्टि से भारतीय क्षेत्र से लगती समुद्री सीमा में एक गंभीर सामरिक उल्लंघन व चिंता का विषय माना जाता सकता है। इससे चीन अब भारत के उत्तर के साथ साथ पूर्व में भी खतरा बनता जा रहा है। भारत-म्यांमार संबंध में चीन की 'म्यांमार के तिब्बतीकरण' की नीति एक बड़ा भय साबित होती जा रही है।
एक लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई सरकार के दमन पर...

आंग सान सू की को हिरासत में लिया गया है। - फोटो : self
वर्तमान में भारत की भूमिका: म्यांमार में सेना के शासन में वापसी और आंग सान सू की की गिरफ्तारी और नेशनल लीग ऑफ डेमोक्रेसी के राजनीतिक नेतृत्व का दमन एक तरह से तीस साल पहले की घटनाओं का पुनः दोहराया जाना है। जब सू की के चुनाव जीत जाने के बावजूद उन्हें सत्ता में आने से सेना ने रोक दिया था। लेकिन वर्तमान मोदी सरकार की प्रतिक्रिया 1989-90 में म्यांमार सेना की कार्यवाही के खिलाफ की भारत की मजबूत सार्वजनिक आलोचना से बिलकुल अलग और कमजोर है।

एक लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई सरकार के दमन पर हमारे विदेश मंत्रालय की प्रतिक्रिया कि “गहरी चिंता और हालात पर नजर बनाए रखे है” ना काफी है। विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले देश के नाते इस व्यवस्था में आस्था व क्षेत्र में “बड़े भाई” की अपनी भूमिका के नाते ना सिर्फ इस तख्तापलट की कड़ी भर्त्सना करनी चाहिए बल्कि अमेरिका जो पहले ही इस घटना पर कड़ा रुख अख्तियार कर चुका है के साथ मिलकर म्यांमार में लोकतंत्र स्थापित करने का दबाव व प्रयास शुरू करने चाहिए।

भारत के ऐसा ना करने का एक महत्वपूर्ण कारण यह है भी है कि म्यांमार की सेना के साथ भारत के सुरक्षा संबंध अत्यंत घनिष्ठ हुए हैं, परंतु हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि वहां की सेना चीन की पिछलग्गू मात्र बनती जा रही है जिस कारण उसके लिए दोनो में से किसी एक चुनाव बेहद आसान है। निस्संदेह सैन्य शासन से चीन को ही लाभ होगा जिसे भांप कर ही अमेरिका ने कड़ा रुख अख्तिया किया है। अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति जो बाइडन ने म्यांमार पर नए प्रतिबंध लगाने की धमकी तक दे डाली है।

ब्रिटेन भी खुलकर लोकतांत्रिक रूप से चुनी सरकार के पक्ष में आ खड़ा हुआ है। 1989 में भारत ने म्यांमार सेना द्वारा लोकतंत्र स्थापित करने के ख़िलाफ़ कदम पर मजबूत रुख अपनाने और आंग सान सू की के पक्ष में खड़े होने का मजबूत और नैतिक रूप से साहसिक कदम उठाया था। जिससे वहां की जनता व राजनेताओें में भारत की गहरी पैठ बनी थी। भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने 1987 में म्यांमार का दौरा किया था, जिसमें लोकतंत्र की ख़िलाफ़त करने वालों से सख्ती से निपटने का संदेश दिया था।

तत्कालीन विदेश मंत्री नरसिम्हा राव ने संसदीय पैनल को भारत सरकार द्वारा म्यांमार के लोकतंत्र आंदोलन को वित्तीय सहायता प्रदान करने तक की बात कही थी। वर्तमान सरकार अगर इस पूरे घटनाक्रम में मजबूत विदेश नीति से हमारी म्यांमार नीति को नहीं आंकती है तो आने वाला वक्त म्यांमार में अपनी पकड़ बनाए रखने और पूर्व में चीन के लिए एक महत्वपूर्ण जगह खाली कर देने जैसी चुनौती से सामना करना होगा।

म्यांमार में सैन्य सत्ता भारत व क्षेत्र के लिए गंभीर प्रभाव लेकर आयेगी। म्यांमार की विदेश व सैन्य नीति में चीन समर्थक झुकाव भारत के हाल के दशकों में वहाँ बनाए गए प्रभाव को मिटा सकता है। यह सब चुनौतियां भारत के लिए बेहद चिंताजनक हैं,जिसे समय रहते नई दिल्ली को हल करनी ही होगी।
 
       
( लेखक, सामरिक और विदेश मामलों के जानकार हैं)