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नागोर्नो-काराबाख़ विवाद से उपजा क्षेत्रीय अशांति का संकट – – आजाद सिंह राठौड़

अज़रबैजान और अर्मेनिया दोनों देशों का स्वतंत्र राष्ट्र के रूप उदय सोवियत संघ के विघटन से 1991 में हुआ था। इन दिनों दोनों राष्ट्र सीमा विवाद के कारण युद्ध के मुहाने पर खड़े हैं जो कि पूरे विश्व के लिए चिंता का विषय बन गया है। दोनो देशों के मध्य विवाद का कारण नागोर्नो-काराबाख़ का भूभाग है जिस पर दोनों ही राष्ट्र अपना आधिपत्य चाहते हैं। 

नागोर्नो-काराबाख़ क्षेत्र एक पहाड़ी क्षेत्र है (नाम का शाब्दिक अर्थ है ‘पहाड़ी वाला काला बगीचा’), जिसका आकार अंग्रेज़ी वर्णमाला के अक्षर ई की तरह है। इसकी आबादी तकरीबन डेढ़ लाख के आसपास है जो वर्तमान अज़रबैजान में स्थित है। यह काकेशस पहाड़ी श्रृंखला के दक्षिणी हिस्से और अर्मेनिया के पूर्व की तरफ़ स्थित है। एक तरफ़ जहां अर्मेनिया एक ईसाई बहुल देश है जबकि तेल समृद्ध अज़रबैजान एक मुस्लिम बहुसंख्यक देश है। वर्तमान अज़रबैजान का नागोर्नो-काराबाख़ क्षेत्र ज्यादातर आर्मेनियाई मूल ( लगभग 90 प्रतिशत ) के लोगों से आबाद है। इस विवाद की जड़े सोवियत युग के आरम्भ में ही पड़ गई थी जब 1921 में, अज़रबैजान और आर्मेनिया सोवियत गणराज्य बन जाते है और नागोर्नो-काराबाख़, अज़रबैजान के भीतर एक स्वायत्त क्षेत्र का दर्जा मिल गया था। परंतु जब 1980 के दशक में सोवियत संघ का पतन करीब था, तब यह स्पष्ट होने लग गया था कि नागोर्नो-काराबाख़ अज़रबैजान नियंत्रण में आ जाएगा, जिसे अर्मेनिया ने कभी स्वीकार नहीं किया। 

अस्सी के दशक में, जब सोवियत सत्ता पतन को अग्रसर थी, नागोर्नो-काराबाख़ में अलगाववादी धारायें बहने लगी। 1988 में नागोर्नो-काराबाख़ की नेशनल असेंबली ने इस क्षेत्र के स्वायत्त दर्जे को भंग करने और इसे अर्मेनिया में शामिल होने के पक्ष में मतदान किया लेकिन अज़रबैजान ने ऐसी किसी माँग को सिरे से ख़ारिज कर दिया, जिसकी वजह से सैन्य संघर्ष हुआ। सोवियत संघ के पतन के बाद जब अर्मेनिया और अज़रबैजान स्वतंत्र देश बने तो अलग अलग समय में झड़पों का दौर चला जिसे एक तरह से एक खुला युद्ध भी कहा जा सकता है। इसमें हज़ारों लोग मारे गए। 1994 में दोनों पक्ष रुस की मध्यस्था में युद्ध विराम पर पहुँचे पर कभी भी शांति संधि पर हस्ताक्षर और और सीमा का स्पष्ट रूप से सीमांकन नहीं हुआ। लगातार चले आ रहे संघर्ष के दौर ने 2006 में टकराव का विभत्स मंजर देखा गया, जिसमें दोनो देशों की सेनाओं व आम जान माल का भारी नुक़सान हुआ। रूस की मध्यस्था से हुए संघर्ष विराम के ज़रिये इस युद्ध को समाप्त कर दिया गया। परंतु अर्मेनियाई सेनाओं ने न केवल नागोर्नो-काराबाख़ पर मज़बूत पकड़ हासिल की, बल्कि इसकी औपचारिक सीमाओं के बाहर के कुछ क्षेत्रों को भी प्राप्त कर लिया। रुस ने अर्मेनियाई और अजरबैजानी बलों को अलग करते हुए नागोर्नो-काराबाख़ लाइन ऑफ कॉन्टैक्ट का भी सीमांकन भी किया। हालांकि, अज़रबैजान का इस क्षेत्र पर संप्रभुता का दावा जारी है और इस क्षेत्र को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी अज़रबैजान के हिस्से के रूप में ही मान्यता प्राप्त है लेकिन यह क्षेत्र अलगाववादीयों द्वारा ही नियंत्रित है जो आर्मेनिया सरकार द्वारा समर्थित है। गत दिनों दोनों देशों के मध्य टकराव एक बार फिर से चरम पर जा पहुँचा और परस्पर भीषण संघर्ष से ज़मीनी हमले व लम्बी दूरी की मिसाइल, हवाई और ड्रोन हमले जैसी तकनीकी हथियारों का प्रयोग हुआ। 

पिछले कुछ सप्ताह में नागोर्नो-काराबाख़ अर्मेनिया और अज़रबैजान के बीच हवाई और तोपखाने के हमलों का मुख्य स्थल बन गया है। 27 सितम्बर को भड़के संघर्ष के बाद अर्मेनिया ने माशर्ल लॉ घोषित कर दिया और अपनी सेना की लामबंदी के आदेश दे दिए हैं। उसकी सेना ने अजरबैजानी विमानों और टैंकों को मार गिराने का दावा किया और अपने पड़ोसी पर नागोर्नो-काराबाख़ की क्षेत्रीय राजधानी स्टेपेनाकर्ट में नागिरक बस्तियों पर हमला करने का आरोप लगाया । इस बीच, अज़रबैजान ने कहा कि उसने आर्मेनियायी गोलीबारी पर जवाबी हमला किया है।

अज़रबैजान के दूसरे बड़े शहर गाँजा पर हुए हमले में आम नागरिकों के हताहत होने के समाचार सुनने को मिले तो अर्मेनिया के कई छोटे बड़े शहरी हिस्सों को भी नुक़सान पहुँचा। 

दोनो देशों आर्मेनिया और अज़रबैजान के बीच चल रहा संघर्ष ना सिर्फ़ दोनो देशों के लिये ख़तरनाक साबित हो रहा है बल्कि सोवियत काल में शुरू हुआ यह युद्ध आज वैश्विक शांति के लिए भी ख़तरा साबित होता हुआ अन्य देशों के इन दोनो देशों के पक्ष में खुले रूप से उतरने के कारण दो से अधिक देशों के संघर्ष के मंच को तैयार करता दिख रहा है। 

एक तरफ़ जहां रूस दोनों देशों को समान सम्बंध रखने की पैरवी करता रहा है वहीं उसका अर्मेनिया की तरफ़ झुकाव जग ज़ाहिर है। रुस के दोनों देशों से सम्बंध बेहतर है परंतु अर्मेनिया के साथ एक सुरक्षा संधि और वहाँ स्थित उसका एक सैन्य अड्डा उसे अर्मेनिया के पक्ष में खड़ा करती है ।हाल ही में नागोर्नो-काराबाख़ में हुई झड़पों के बाद रुस ने राष्ट्रपित पुतिन और अर्मेनिया के प्रधानमंत्री निकोल पिशयान के बीच बातचीत का ब्यौरा तो मीडिया में साझा किया लेकिन अज़रबैजान के राष्ट्रपित इल्हाम अलीयेव के साथ किसी तरह की बातचीत के समाचार के सवाल पर मौन बनाये रखा। दूसरी तरफ़ अज़रबैजान को इज़राइल, तुर्की और पाकिस्तान जैसे देशों से खुला समर्थन मिलता दिख रहा है। ग़ौरतलब है कि रुस और तुर्की के मध्य खुला टकराव व रुस का तुर्की पर हवाई हमला वर्तमान परिस्थितियों को और ज़्यादा ज्वलनशील किये हुए है। दो देशों का यह युद्ध इस तरह इस बार दोनों के मध्य युद्ध से बढ़ा हुआ लग रहा है ।

पाकिस्तान के भी खुल कर अज़रबैजान को समर्थन देने से भी आगे बढ़ कर सैन्य सहयोग की पेशकश कर देना इस युद्ध की लपटों को दक्षिण एशिया में हमारे नज़दीक ले आयी है। इसी परिप्रेक्ष्य में पिछले दिनों अज़रबैजान के राजदूत अली अलीजादा के पाकिस्तानी फ़ौज के जाइंट चीफ़ आफ स्टाफ़ कमेटी जनरल नदीम राजा से मुलाक़ात की है यह संकेत भी हमारे  लिए कम चिंताजनक नहीं है। वही आर्मेनिया ने कुछ महीनों पहले ही भारत निर्मित हथियार ( रडार ) ख़रीद सौदे को पूर्ण कर किया। कश्मीर मामले पर पिछले दिनो अर्मेनियाई प्रधानमंत्री द्वारा खुल कर भारत के समर्थन में बयान देकर भारत की विदेश नीति को अपनी तरफ़ झुकाने का प्रयास कर रहा है तो दूसरी तरफ़ अजेरबैजान भी हमारे लिये सामरिक और व्यापारिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। नोर्थ-साउथ इंटरनेशनल ट्रांसपोर्ट कोरिडोर ( आधा समुद्री आधा ज़मीनी ) जो कि मुंबई से चाबहार होते हुए मास्को वाया अज़रबैजान से ही जाता है। भारत और अजेरबैजान के मध्य सालाना लगभग एक हजार मिलियन डालर का व्यापार भी होता है। हालाँकि भारत ने नागोर्नो-काराबाख़ की स्थिति को लेकर चिंता व्यक्त की है परंतु खुल कर न बोलते हुए सभी पक्षों से युद्ध बंद करने को कहा है। बीते दिनों विदेश मंत्रालय के अधिकारिक प्रवक्ता अनुराग श्रीवास्तव ने कहा कि भारत हर उस स्थिति को लेकर चिंतित है जिससे क्षेत्रीय शांति और सुरक्षा को खतरा हो। हम दोनों पक्षों को तुरन्त युद्ध बंद करने, संयम रखने और सीमा पर शांति बनाए रखने के लिये हर संभव कदम उठाने की जरूरत को दोहराते हैं। हमारा यह आधिकारिक बयान वर्तमान परिस्थितियों में नाकाफ़ी है और भारत को आगे बढ़ कर संयुक्त राष्ट्र में इस मुद्दे पर बेबाक़ी से अपनी बात को रख कर दोनों देशों को मध्यस्था का प्रस्ताव देना चाहिए। इन विकट परिस्थितियों में भारत को एक महत्वपूर्ण और अहम किरदार निभाना चाहिए जिससे कि वैश्विक शांति पर मंडराते हुए इस खतरे को टाला जा सके।

          – आज़ाद सिंह राठौड़

(लेखक और सामरिक व अन्तर्राष्ट्रीय मामलों के जानकार हैं।)