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यू॰एस॰, तालिबान समझौता और दोराहे पर खड़ी भारत की अफ़ग़ान नीति – आजाद सिंह राठौड़

अफगानिस्तान के लिए यूएस-तालिबान शांति समझोता क्षेत्र से अमेरिका द्वारा युद्धबंदी व एकतरफा वापसी के फ़ैसले और अफ़ग़ानिस्तान में तालिबानी चरमपंथ वाले बुरे दौर की पुनरावृत्ति की सम्भावना रूप मे ही देखा जा रहा है, साथ ही भारत व चीन जैसे पड़ोसी राष्ट्रों के लिये भी आने वाले समय मे गम्भीर कठिनाइयाँ को सामने लाने वाला प्रतीत हो रहा है।

गत 29 फ़रवरी को कतर की राजधानी दोहा में यू.एस. और तालिबान द्वारा युद्ध को समाप्त करने के लिए एक समझौते पर हस्ताक्षर किए जाने के कुछ दिनों बाद ही हिंसा की नयी घटनायें शुरू हो गयी। समझोते के बावजूद तालिबान समर्थक आतंकवादियों अफ़ग़ान सरकार समर्थको व अफ़ग़ान फ़ौज को निशाना बना हमले जारी रखे हुए है, मजबूरीवश अमेरिकी सैनिकों ने अफगान सैनिकों पर हुए शृंखलाबद्ध हमलों की जवाबी कार्रवाई में तालिबान समूहो पर हमला किया। इसके बाद काबुल में कुछ बंदूकधारियों ने गोलियां चलाईं तो उसमें कम से कम 32 नागरिक मारे गए, दर्जनों घायल हुए। अफ़ग़ान राष्ट्रपति अशरफ़ गनी को निशाना बना बड़ा हमला भी हुआ। यह घटनायें इस और इंगित करती है कि अफ़ग़ानिस्तान मे अभी भी सब कुछ सामान्य नहीं है व उसे अभी किसी समझोते के तहत अकेला या तालिबान के हवाले छोड़ देना आने वाले समय मे विनाशकारी साबित होगा।

अफ़ग़ानिस्तान मे पिछले 18 सालो से चले अनवरत संघर्ष के बाद बिना किसी ठोस नतीजों और सफलता पर पहुँचे अमेरिका आज वहा से अपनी फ़ौज की घर वापसी चाहता है। ट्रम्प प्रशासन भी इस वापसी को अफ़ग़ानिसतान में अमेरिका की जीत बता चुनावी फ़ायदे लेने का अवसर खोना नहीं चाह रहा। परंतु स्थिति बिलकुल उलट है, तालिबान वहाँ अभी भी अंदरखाने अपनी जड़े बेहद मज़बूत बनाए बैठा है व वक्त ज़रूरत होने पर अपने पुराने रंग मे कभी भी लौट सकता है। घर वापसी की इन्ही संभावनाओं को तलाशते अमेरिका ने गत दिवस फ़रवरी को कतर की राजधानी दोहा मे तालिबान के शीर्ष नेतृत्व से एक समझोते पर दस्तख़त किये। जिसमें मुख्यतः चार विषयों पर सहमति नज़र आयी। पहला, दोनो पक्षों अमेरिका व तालिबान की तरफ़ से युद्धबंदी, दूसरा, अमेरिका द्वारा फ़ौज की वापसी, तीसरा, तालिबान द्वारा अमेरिका व उसके मित्र राष्ट्रों को किसी तरह की हानि नहीं पहुँचाना व वर्तमान अफ़ग़ान सरकार व तालिबान का आपस वार्ता शुरू कर तालिबानी युद्धबंदियो की रिहाई करने के साथ अन्य सभी समस्याओ का हल ढूँढना।

समझोते पर दस्तख़त होने जाने के बावजूद वर्तमान परिस्थितियों में इस समझोते को धरातल पर उतारना बेहद ही मुश्किल है, और अगर यह धरातल पर नज़र आया भी तो वर्तमान लोकतांत्रिक अफ़ग़ान सरकार के लिये ख़तरानाक परिस्थितियां सामने आ जायेंगी व लोकतंत्र मे कम ही विश्वास रखने वाले कट्टरपंथी तालिबान के जकड़ मे अफ़ग़ानिस्तान फिर से चला जायेगा। आज तालिबान के नेतृत्व मुल्ला अखुंदज़ादा, अब्दुल कय्यूम ज़ाकिर, अब्दुल रज़्ज़ाक जैसे वरिष्ठ कट्टरपंथी तालिबानी करते हैं। यह विश्वास करना बहुत मुश्किल है कि उन्होंने 18 साल तक केवल इस स्थिति के लिए लड़ाई लड़ी होगी, जहां वे राष्ट्रपति गनी जैसे किसी उदारवादी व्यक्ति के नेतृत्व वाली अफगान सरकार में अधिनस्थ रह कार्य करते रहे। निहसंदेह अमेरिका की घर वापसी के बाद तालिबान का सबसे पहला कार्य येन केन प्रकरण सत्ता हासिल करना ही होगा। आज का तालिबान 1990 के तालिबान से जिसने वर्ल्ड ट्रेड सेंटर को उड़ाने व कंधार हाईजेक जेसी घटनाओं को अंजाम देने मे हिस्सेदारी निभायी से अलग ज़रूर है। परंतु उनकी थोड़ी संशोधित विचारधारा में भी महिलाओं के प्रति काफी कठोर व्यवहार व धार्मिक कट्टरता की स्थिति जस की तस है। पुनः सत्ता मे आने के बाद तालिबान मानवाधिकार हनन व अपनी ज़मीन से अन्य देशों में धार्मिक आतंकवाद को शह नहीं देने के अपने वायदे पर कम ही खरा उतरता दिखायी देगा। वही दूसरी और वर्तमान अफ़ग़ान सरकार ने भी समझौते के अहम बिंदु, कि उसके क़ैद में रखे तालिबानीयो को समझोते के तहत रिहा करने को सिरे से नकार तालिबान व समझोते के प्रति अपने विरोध को भी खुल कर प्रकट कर दिया है।

यह समझोता भारत के लिये भी एक बड़ा झटका ही साबित होता नज़र आ रहा है। अमेरिका व तालिबान के इस समझोते ने भारत की अफ़ग़ानिस्तान नीति को दोराहे पर खड़ा कर दिया है। जहां एक और अमेरिका इसे एक प्रकार का शांति समझोते के रूप मे प्रचारित कर रहा है जिस पर भारत व अन्य राष्ट्र खुल कर आपत्ति भी नहीं दर्ज करा सकते वही दूसरी तरफ़ तालिबान का भारत समेत उन राष्ट्रों के प्रति रवया और उनके ख़िलाफ़ आतनवादी गतिविधियों का भय भी जगज़ाहिर है। इस समझौते से तालिबान और पाकिस्तानी सेना में उनके समर्थकों के अलावा कोई भी इस क्षेत्र में खुश नहीं है। ग़ौरतलब है कि ईरान और चीन ने भी इस समझोते पर आशंका मिश्रित प्रतिक्रियाएँ दी है। भारत ने लगातार माना है कि काबुल में वैध सरकार किसी भी शांति योजना की मूल आधार होनी चाहिए वही दूसरी तरफ़ पाकिस्तान की सेना व सरकार तालिबान दोस्ताना तालिबान शासन को फिर से स्थापित करने की इच्छा रखती है।

इस बीच, भारत इस समझौते को क्षेत्रीय शांति व अमेरिका के साथ अपने संबंधों के लिए सकारात्मक के रूप में नहीं देखा जा रहा है। यह समझोता ट्रम्प की भारत यात्रा के एक हफ्ते बाद होताहै, जिसने यह स्पष्ट कर दिया है कि साझा रणनीतिक व सामरिक चिंताएं दोनो देशों को एक साथ रखने वाली एक महत्वपूर्ण कड़ी नहीं हैं। अमेरिका ने पूर्व में भी भारत-पाक रिश्तों में अपने स्वार्थ को ही ज़्यादा अहमियत दी है यह समझोता भी उसी तरह का एक उदाहरण है।
भारत ने 2001 के बाद से अफगानिस्तान में किए गए लोकतंत्र, मानवाधिकारों, महिलाओं के अधिकारों, उसके सुनिश्चित भविष्य व विकास पर लगातार कार्य कर उसका सहयोग किया है। भारत सदेव संप्रभु, लोकतांत्रिक, समावेशी, स्थिर और समृद्ध अफगानिस्तान में रुचि रखता हैं जो दक्षिण एशिया में शांति बनाये रखने के लिये भी बहुत महत्वपूर्ण है। परंतु यह समझौता मई 2021 तक अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी की समय सारिणी और उसमें अमरीकी हितों तक ही सीमित है। इस समझोते मे भारत की कोई महत्वपूर्ण भागीदारी को अमेरिका द्वारा दरकिनार करना भी भारत के लिये काफ़ी विषम व निराशाजनक साबित होगा। राष्ट्रपति ट्रम्प की यात्रा के दौरान संयुक्त प्रेस नोट में अमरीका प्रशासन के दबाव में अफ़ग़ानिस्तान में किये जा रहे उसके इन प्रयासों को शामिल कर भारत को इस गंभीर मुद्दे पर मौन सहमति देने को मजबूर कर दिया है। भारत सरकार के ट्रम्प प्रशासन की आवभगत व महिमामंडन से ऊपर उठ व बिना किसी अमरीकी दबाव के ईरान, चीन व अन्य पड़ोसी सार्क राष्ट्रों को साथ ले पुरज़ोर तरीक़े से उठाना चाहिये था। यह अवसर खोने के बाद भारत की अफ़ग़ान नीति दोराहे पर खड़ी व आने वाले समय में मजबूत अफ़ग़ान संबंधो को खोती नज़र आ रही है।

– आजाद सिंह राठौड़, बाड़मेर

( लेखक, रक्षा व विदेश नीति विश्लेषक )